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Jan 23, 2012

दुलारपुर दर्शन -4 (गंगा का कटाव और दुलारपुर)


दुलारपुर के विकास की कहानी 

जैसा कि आपने पिछले पोस्ट में पढ़ा कि दुलार राय के मरणोपरान्त पंडित चिन्मय मिश्र (अपभ्रंशित नाम चुनमुन्नी मिश्र) को उनकी सारी जमीन-जायदाद मिली। दुलार राय की स्मृति में ही दुलारपुर नाम रक्खा गया। ज्ञातव्य है कि दुलार राय काफी  धनी-मानी व्यक्ति थे। प्रत्येक समृद्ध  एवं सम्पन्न लोगों के बड़े कारोबार को देखने चलाने के लिये कारिन्दे या मैनेजर होते हैं। दुलार राय के यहाँ भी ढेऊरानी रहता था। सीमान पर देखभाल के लिये उनको पश्चिम से जमीन दिया गया। वही उनके  कारबार की देख-रेख करता था। सभी लोग ढेऊरानी को ही दुलार राय का उत्तराधिकारी मानते थे। परन्तु दुलार राय ने अपनी सारी सम्पत्ति पंडित चिन्मय मिश्र के नाम पर कर दी। ढेऊरानी दबंग एवं नामी पहलवान था। दुलार राय की मृत्यु के बाद ढेऊरानी ने मिश्र जी से अपना हिस्सा मांगा। मिश्र जी सीधे -साधे  व्यक्ति थे। अतः उन्होंने आधा  हिस्सा ढेऊरानी को दे दिया।

ढेऊरानी के वंशज 


ढेऊरानी को दो पुत्र हुए। पहले बेटे  को कई पुत्र थे परंतु दूसरे को सिर्फ एक बेटी थी।  ढेऊरानी की जायदाद का आधा-आधा  हिस्सा दोनों पुत्रों  को मिला। कालान्तर में  ढेऊरानी के पोते की सारी जमीन या तो बिक गयी अथवा नीलाम हो गई। लेकिन उसके पोती की जमीन बची रही, किसी कारणवश नीलाम नहीं हो सकी। उसकी पोती का परिवार यहीं बस गया और उन्हीं का वंशज हरिअमैय कहलाया। वर्तमान आधारपुर में  ढेऊरानी का ही वंशानुक्रम  है।


इधर  समय के बदलते आयाम में पंडित चिन्मय मिश्र की वंश परम्परा आगे बढ़ी, जिनके नामों की सही जानकारी अनुपलब्ध  है। ऐसे जनश्रुति  है कि गाँव में युवकों की वर्तमान पीढ़ी पंडित चिन्मय मिश्र के वंश का बीसवां पीढ़ी है। कहा जाता है कि कई पीढ़ी के बाद पंडित चिन्मय मिश्र के वंश के एक मात्र चिराग प्रेमनारायण सिंह बचे। कालक्रम में उपनाम मिश्र से बदलकर राय और पुनः सिंह हो गया। प्रेमनारायण सिंह की दो शादी हुई थी- एक चगाजी में और दूसरी जगतपुरा में।

चगाजीवाली पत्नी से दो पुत्र हुए-
1. हरिनारायण सिंह- जिनका उपनाम बाद में सिंह के बदलकर चौधरी हो गया। किंवदन्ती है कि  चौधरी उपनाम मुस्लिम शासकों ने हरिनारायण सिंह को जैठरेयती में दी थी। ऐसे में इस सन्दर्भ में एक अन्य जनश्रुति भी है, जिनकी चर्चा आगे की जायेगी।

2. शिवनारायण सिंह
हरिनारायण सिंह एवं शिवनारायण सिंह के परिवारजनों को मिलाकर 51 पट्टी बना जो अभी भी प्रचलित है ।

जगतपुरा वाली पत्नी से भी प्रेमनारायण सिंह को दो पुत्र हुए। 
1. बल्लमी सिंह- जिनसे 80  पट्टी बना परंतु कालांतर में बल्लमी सिंह के पुत्रों में आपसी सामंजस्य के अभाव के कारण इसी से टूटकर 38 पट्टी बना। 38  पट्टी वालों का हिस्सा पश्चिम से हुआ। अतः लोग इन्हें पछियारी कहने लगे।

2 . धूर्वा सिंह - जिनसे 32  (बत्तीस) पट्टी बना।  
पट्टी  निर्माण के सम्बन्ध  में एक जनश्रुति यह है कि जिसको जितने जोड़ी हल बैल थे, उनसे उतनी संख्या की पट्टी बनी। इसका तात्पर्य यह कि हरिनारायण सिंह एवं शिवनारायण सिंह को संयुक्त रूप से 51  जोड़ी, बल्लमी सिंह को 38 जोड़ी एवं धूर्वा सिंह को 32  जोड़ी हल - बैल  रहे होंगे।

इस प्रकार गाँव के विकास का रथ आगे बढ़ना शुरू किया। उन दिनों गाँव नदी के पूर्वी किनारे पर टेनियल नामक जगह पर बसा था। यहीं बाबा योगभारती का पर्दापण हुआ था तथा दुलारपुर मठ की स्थापना हुई थी। गंगा के कटाव की मार दुलारपुर को कई बार झेलनी  पड़ी है। गंगा द्वारा कटाव इस गांव के विकास में अवरोध  का प्रमुख कारण रहा है। रवीन्द्र कुमार का जातिवाद एवं सामाजिक प्रगति नामक शोध प्रबंध, जो प्रो॰ मन्सूर आजम  के निदेशन में हुआ, के अनुसार दुलारपुर में 1802  ई॰ में कटाव हुआ। टेनियल पर बसा गाँव विस्थापित होकर महाराजी  एवं अलग-बगल की अन्य जगहों पर आकर बस गया।

उन दिनों गाँव में दो टोला था। पूवारी और पछियारी। पछियारी टोला के बाद शिवमंगलमोची का टोला था। सीमान पर टहल दुसाध् का टोला था। पूवारी टोला में मोती सिंह का वास था। रामपुर गोपी या ‘बिचली’ में दुलारपुर मठ था। वर्तमान का ताजपुर, मठ के बाद बसा था।  ताजपुर, दुलारपुर मठ का रैयत था। पूबारी  टोला के मोती सिंह काफी धनी व्यक्ति थे। कहा जाता है कि वे 1400 बीघा जमीन के मालिक थे। उन्हें काफी  माल-मवेशी था, जिनके  गले या पैर में रस्सी नहीं लगती थी। 


एक बार की बात है। गंगा नदी में भयंकर बाढ़ आयी, जिसके  कारण मोती सिंह के मवेशियों को खगड़िया से पूरब फरकीया की ओर ले जाया गया। बहुत मवेशी होने के कारण वहाँ के किसानों को काफी  क्षति उठानी पड़ी, अतः दूसरी बार से वहाँ के कृषक समुदाय 300 बीघा जमीन में खेसारी छींटकर मोती सिंह के मवेशियों के लिये छोड़ देते थे। उस समय गाँव काफी खुशहाल हो गया था। 

समस्तीपुर में आयोजित एक दिवसीय विचार गोष्ठी जिसमें  हिस्टरी ऑफ़ चकवार बिषय  पर विचार व्यक्त करते हुए विश्वविख्यात इतिहासकार प्रो॰ रामशरण शर्मा ने कहा कि 1802  ई॰ से पहले दुलारपुर गांव में ही मउ बाजार पड़ता था। वहीं बाजार के बगल में ही दूर्गापूजा काफी धूमधाम से मनायी जाती थी। इस अवसर पर गाँव में सांस्कृतिक आयोजन (नाटक, भजन आदि) भी किया जाता था कटाव के बाद यही दुलारपुर बाजार वर्तमान के मउ बाजार के रूप में पुन:स्थापित हो गया। नयानगर और आधारपुर के मध्य अवस्थित प्राचीन  काली मंदिर इस बात की पुष्टि करता है कि दुलारपुर के लोग शक्ति के उपासक रहे होंगे। 

दुलारपुर का कटाव और संत राघोदास 


पुनः 1850  के दशक में गंगा में  कटाव प्रारंभ हो गया और बसे हुए गांव के समीप आ गया। उसी समय गांव में राघो दास नाम के सिद्ध  महात्मा का आगमन हुआ। कटाव के भय से भयभीत लोगों  की दशा देखकर संत हृदय द्रवित हो गया।

उन्होंने कहा- हम जैसा कहें, अगर आप लोग वैसा कर मेरी मदद करें तो गंगा भैया को मना लूँगा और कटाव अवश्य रूक जायेगा। डूबते को तिनके  का सहारा मिला। लोगों ने उनके  कथनानुसार पूजा-पाठ की सारी सामग्री जुटा दी। विशुद्ध खीर बनाई गई और पूजा की सारी तैयारी कर ली गई। वे पूजा-स्थल यानि कटाव स्थल पर जाने से पहले ही एक  शर्त  रख चुके  थे कि अगर कटाव रुक गया तो उन्हें ठाकुरवाड़ी एवं भोग सामग्री का इंतजाम गाँव वालों को करना पड़ता। कटाव का भय था। अतः सबों ने उनकी ये शर्त मान ली। पूजा प्रारंभ हुई। 


जनश्रुति  है कि वे एक थाल में खीर, अक्षत, फूल  नैवेध् आदि पूजा सामग्री लेकर गंगा की तेज धार  में प्रवेश कर गये और कई ग्रामीणों को किनारे पर इंतजार करने को कहा। काफी समय उपरान्त जब वे पानी से वापस नहीं आये तो लोगों ने समझ लिया कि गया महात्मा काम से। वे बेचारा अब तक तो कहाँ से कहाँ जलधार  के साथ बह गया होगा। परन्तु काफी देर के बाद राघोदास गंगा से बाहर आये। उनके  हाथ में खाली थाल था। जब वे गाँव आये तो लोगों ने काफी आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा- गंगा माँ मान गई है। जमीन पर एक लकड़ी गाड़ते हुए कहा कि अब कटाव इससे आगे नहीं बढेगा वस्तुत: कटाव रुक  गया। 

लोगों ने गंगा के कछार पर ही राघो दास को जमीन आश्रम बनाने के लिये यह सोचकर दी कि अगर कभी पुनः कटाव हुआ तो पहले महात्मा की कुटिया की कटकर गिरेगी। गाँव से उन्हें मनपौवा मिलने लगा। आश्रम के साथ-साथ गाँव भी खुशहाल हो गया। राघोदास जी ने सोलह कोठरी की ठाकुरवाड़ी बनवा दी। गंगा ने मिट्टी जमाकर खेती योग्य काफी जमीन बना दी। वे लगभग पच्चीस वर्षों तक यहाँ रहे। एक दिन राघोदास  ठाकुरवाड़ी के लिये निर्धारित  मनपौवा माँगने के लिये सबेरे  पहर ही घूम रहे थे।

गाँव में एक व्यक्ति रीतलाल सिंह थे। वे काफी सुखी सम्पन्न थे। राघोदास गांव में मांगते-घूमते लगभग नौ बजे रीतलाल सिंह के यहाँ पहुंचे। वे उस समय अपनी छप्पर पर खड़े थे। उनको दस खपरैल घर था। जिसके  औछावन का काम मजदूर लोग कर रहे थे तथा वे उसका मुआयना कर रहे थे। राघोदास ने उनसे कहा- अरे ओ रीतलाल! तुम्हारे यहां से अभी तक मनपौवा नहीं पहुंचा है। बेटा जरा भिजवा देना। बूढ़े हो गये हैं। चला फिरा  नहीं जाता इसलिये इतना तो तुम्हें करना ही होगा। इस पर रीतलाल सिंह ने छप्पर पर से ही जबाब दिया - अरे महात्मा जी, आप भी सवेरे-सेवरे यहां आकर कौआ की तरह कांव-कांव करने लगते हैं। जाइये भिजवा दूगाँ। 


महात्मा को इस बात से काफी कष्ट  हुआ। बोले- जब गंगा को लौटाना था तो हाथ जोड़े खड़ा रहते थे। और आज राघोदास कौआ हो गया। इसका  फल बहुत खराब  होगा। कहा जाता है उसके  तीन दिन बाद ही राघोदास की मृत्यु हो गई। सभी लोग उन्हें ‘महाराजी’ से आगे अंतिम संस्कार के रूप में गंगा में डूबाकर लौटे थे कि कटाव शुरू हो गया। 

1879  ई॰ का यह कटाव काफी त्रासदीपूर्ण था। कहा जाता है कि पाँच दिन में गंगा कटाव करती हुई दुलारपुर गाँव में घुस गयी। किसी को घर  से भी कुछ निकालने का अवसर न मिला। मवेशी बंधन  तोड़कर भागने लगे। घर -द्वार, मठ-ठाकुरबाड़ी सब एक दिन में ही कट गया। पलभर में गांव कंगाल हो गया। 
1879 - 80   का कटाव इतना भीषण था कि गंगा की मुख्य धारा बाया नदी के पास बहती थी। पूरा दियारा कटाव की चपेट में आ गया था। इस भीषण कटाव के कारण यहाँ के लोगों को पुनर्वास की समस्या थी। उस समय दुलारपुर मठ (दुलारपुर स्टेट) की जमीदारी चारों तरफ फैली हुई थी। ढेऊरानी, हरिअम्मैय, भरद्वाजी तथा अन्य वर्ग के प्रतिष्ठित लोगों ने एक साथ मिल बैठकर विचार किया कि अब अपने को कहाँ बसाया जाय? ढेऊरानी - हरिअम्मैय एकमत होकर दुलारपुर स्टेट की जमींदारी में बसने को तैयार हो गये लेकिन उस समय भरद्वाजी मोती सिंह के नेतृत्व में यह निर्णय लिया गया कि हमलोग संन्यासी की जमीन पर नहीं बसेंगे, यानि हम रैयताना कबूल नहीं करेंगे। उनका यह तर्क था कि जिस दुलारपुर स्टेट में नये महंथ को हमलोग पगड़ी देते हैं, उसके  अधीन नहीं रहेंगे। उसी समय वर्तमान में नयानगर से दक्षिण पूर्व जो कटहरी के नाम से जाना जाता है,  में नील की खेती होती थी और नयानगर के उत्तर-पश्चिम में स्थित सोंता जो नोन  के नाम से पुकारा जाता है, में नील की धुलाई  की जाती थी। उस समय मार्शल नाम का अंग्रेज  ‘अयोध्या अंग्रेज  कोठी’ का कोठीवाल था। उसी की देखरेख में नील की खेती होती थी। उस समय श्री  मोती सिंह ने 300 बीघा जमीन कोठी से तत्काल लीज पर लेकर नयानगर नाम से सूर्यमण्डलाकार टोला बसाया था। 

तोखन सिंह का  टोला भी  बस गया, जिसमें तिलकधारी सिंह, हरख सिंह एवं द्वारिका सिंह का परिवार प्रमुख था। दुलारपुर मठ भी इसी कटाव के बाद श्री चतुर्भुज भारती द्वारा वर्तमान स्थान पर लाया गया। दुलारपुर का रैयत भी यहाँ आकर चकमुन्नी, चकअमला,  चकायम, चकनायत, वाजितपुर तथा फतेहपुर आदि जगहों में बस गया। इसलिए आज भी उनको दुलारपुर के वासी और लोग के रूप में देखा जाता है

1879 - 80   का कटाव काफी भीषण था। परंतु जिस समय ने उन्हें घर से बेघर  किया, भुखमरी की स्थिति ला दी, उसी ने उन्हें पुनः रोटी दी। तात्पर्य यह है कि 1887 - 88 में सम्पूर्ण दियारा पुनः आबाद हो गया। चूँकि वर्तमान जगह में अधिकांश लोगों को काफी कम जमीन थी। अतः गांव का पलायन फिर से दियारा होने लगा। परंतु जिन लोगों को गांव में अधिक  जमीन थी, वे यहीं बसे रह गये। जिसमें कुछ परिवार नयानगर में, कुछ तोखन सिंह टोला में, तथा कुछ आधारपुर में बसे रहे गये। इस प्रकार लगभग 95 प्रतिशत लोग दियारा चले गये। 

उसके  बाद भी दियारा में कई छोटी-छोटी कटाव का सामना लोगों को करना पड़ा। इस गांव को कटाव की मार काफी झेलनी पड़ी। कहा जाता है कि दियारा में भी लोग घुम- घुमकर बसते थे। पहले महराजी में थे, कटाव हुआ तो वहाँ से अलग-अलग बस गये। महाराजी के बाद दियारा में भूमिहार लोगों का मुख्यतः दो  टोला था- धनिक लाल सिंह एवं पत्तीराय सिंह टोला। धनिकलाल सिंह टोला के पश्चिमोत्तर गोविन्द दास पुर टोला था। इस टोला में दुसाध  जाति के लोग थे। गोविन्ददासपुर के बाद नेपाल में  एक टोला था जिसमें यमुना सिंह वगैरह का वास था। उसके  पश्चिम रतुलहपुर में दुसाध टोला था एवं अंत में संतलाल सिंह का खपरैल का बहुत बड़ा डेरा था। बत्तीस में हरख सिंह, द्वारिका सिंह के परिवार का डेरा था। उसके  बाद समसीपुर दियारा प्रारंभ हो गया था। पूरब में  पत्तीराय टोला था  इस टोला का सभी घर एक पंक्ति में था। किसी का भी घर आगे पीछे नहीं था। आगे में सड़क था। यह दक्षिण से उत्तर एक सीध में बसा होता था और आगे में सड़क के बाद एक ढ़ाव था जो प्राकृतिक दृष्टि से काफी मनोरम प्रतीत होता था। टोला के उत्तर में प्राथमिक और मध्य विद्यालय था। स्कूल से सटा नवयुग पुस्तकालय था। स्कूल से उत्तर नरहन स्टेट की कचहरी थी और कचहरी के बाद एक बड़ा जलाशय था, जो दोनों टोला को विभक्त करता था। स्कूल से पूरब दोनों टोला का विभाजक मोहर बाबा का विशाल वटवृक्ष था, जो 1955 - 56  के कटाव में गिर गया। पत्तीराय टोला को लोग सिरहीवाली जमीन भी कहते हैं। 1952  ई॰ के पूर्व से ही पत्ती राय सिंह टोला कटाव में गिरना शुरू हो गया। तब इस टोला के लोग धनिक लाल सिंह टोला में जाकर पश्चिम से बसने लगे। 1955 - 56 ई॰ पुनः जब पश्चिम से लोगों का घर गिरने लगा। तब कुछ लोग 40  बीघवा में जाकर बस गए। कुछ लोग धनिककाल सिंह टोला के उत्तर जाकर झगड़ालू  (विवादित)  जमीन पर बस गये। अतः लोग उन्हें झगरहुआ टोला कहने लगे। 1955 - 56  ई॰ के कटाव के बाद अधिकांश लोग वर्तमान स्थान में चले आये। गाँव में पुनर्वास की समस्या उत्पन्न हो गई। वर्तमान जगह में पहले से रह रहे लोगों ने किसी तरह से आपस में जमीन का आदान-प्रदान कर गाँव के लोगों को बसने में मदद की। 40   बीघवा में बसे लोग 1962  ई॰ में तथा झगरहुआ में बसे लोग  1964   ई॰ में यहाँ आकर बस गये।


इस प्रकार दुलारपुर गाँव राष्ट्रीय राजपथ-28 पर बसा गाँव हैं। तेघड़ा और बछवाड़ा के बीच, गंगा के दुकूल में बसा यह गाँव अब काफी खुशहाल है। गंगा की उपजाऊ  मिट्टी में खेतीकर यहाँ के लोग काफी अन्न पैदा कर लेते हैं। इस गांव में ऊँची - नीची सभी प्रकार की जातियों  का समन्वय है।

इस तरह हम पाते है कि गंगा नदी के कटाव के कारण दुलारपुर का विकास काफी अवरूद्ध  हुआ था। किंवदन्ती प्रसिद्ध  है कि अब तक चौदह  बार गंगा के छोटे-बड़े कटाव का सामना दुलारपुर वासी कर चुके  हैं।



स्रोत: सभी पाठकों के मन में यह उत्कंठा होगी कि ऊपर दिए गए तमाम जानकारी का स्रोत क्या है? 

1. सबसे पहले जनश्रुति जिसकी जानकारी हमें श्री विन्देश्वरी चौधरी (विनो बाबा - विशेष और अखिलेश के बाबा); श्री लाल बाबू सिंह, श्री सुबेलाल सिंह अमीन, श्री सच्चिदानंद सिंह शिक्षक, आदि ग्रामीण जन हैं.
2. मैं अपने अंतर्मन से विशेष धन्यवाद श्री उपेन्द्र चौधरी (नरेश बाबा - कर्मचारी ) जी को देना चाहूँगा जो जानकारी के  चलते फिरते भंडार थे. 
3. श्री रविन्द्र कुमार सिंह के शोध प्रबंध (जातिवाद एवं सामाजिक प्रगति)
4. श्री राम सेन सिंह के समाज शास्त्र पर किये गए शोध कार्य 

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